Guru nanak and Bhai Lahina ji

श्री गुरू अंगद देव जी जब खडूर साहिब में रहते थे तो वह हर साल ज्वाला देवी के दर्शन करने जाते थें, और उनके साथ ही गांव के अनेक संगत (लोग) जाती थी। उनके गांव में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था जो गुरू नानक देव जी को मानता था। एक दिन जब वह बाणी प-सजय़ रहा था, तो उसके मुंह से बाणी भाई लहणा जी (गुरू अंगद देव जी का पहला नाम) ने सुन ली। बाणी को सुनकर वह बहुत ही आर्कषित हुए। और उन्होने कहा कि तुम यह
किसकी बाणी प-सजय़ रहे हो। तब उस सिख ने बताया कि यह गुरू नानक देव जी की बाणी है। गुरू नानक देव जी इस जगत में परमेश्वर का ही अवतार है। यह सुनकर उनके मन में भी इच्छा थी कि वह गुरू जी से मिले। उनके साथ रहते हुए कुछ दिनो में उन्होने बाणी याद कर ली। 1 कुछ समय बाद उनका वह दिन आ गया, ज बवह हर साल ज्वाला जी के पास जाते थें। इस बार उन्होने संगत से कहा कि इस बार हम करतारपुर साहिब के रास्ते से चलेगंे। वह सपंूर्ण समूह की अगवाई करते थें, तो किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके विरूद्ध बोल सके। जब करतारपुर साहिब पहुंचे तो उन्होने सारी संगत को बाहर ही रहना को कहा 2 । भाई लहणा जी जब करतारपुर साहिब पहुंचे तो गुरू नानक देव जी को पता चल गया कि हमारी इस गद्दी का दावेदार आ गया है और वह भाई लहणा जी को अपने आप लेने गए। भाई लहणा जी ने गुरू जी से पूछा कि मु-हजये1 क्योंकि उस समय इतनी बाणी की पौथियां नही थी जितनी आज के समय में है, अगर किसी गुरू सिख को बाणी याद करनी होती थी तो वह किसी दूसरे गुरूसिख से ही सिखता था। 2 े इसके पीछे भी एक रहस्य है कि जब भी किसी संत के पास जाना चाहिए तो अकेले ही जाना चाहिए। दूसरे व्यक्ति संत के सामने अगर गलत व्यवहार कर दे, इससे उल्टा ही प्रभाव पड़ता है। गुरू नानक देव जी से मिलना है क्या आप मु-हजये उनका रास्ता पता सकते हो (वास्तव में भाई जी गुरू जी से पहली बार ही मिलने आए थें तो उनकी पहचान नही थी कि वह जिससे जिनके बार में पूछ रहे है वह और कोई नहीं गुरू नानक देव जी अपने आप ही है।) गुरू जी ने उनके घोडे की रस्सी पकड़ी और उन्हे अपने साथ लेकर चल पड़ें। गुरू जी के हाथ में घोडे़ की रस्सी है और भाई लहणा जी घोडे़ के उपर। जब धर्मशाला (वह स्थान जहां गुरू नानक देव जी रहते थें) आई तो गुरू जी ने उन्हे घोडे लगाने के लिए स्थान की तरफ इशारा किया व अपने आप चले गए लेकिन यह नहीं बताया कि वह ही गुरू नानक है। भाई लहणा जी घोडे़ से उतरकर अंदर है।  गुरू जीदुसरे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए। भाई लहणा जी ने अंदर आकर जब सामने देखा तो उस समय गुरू  के चेहरे पर काफी प्रकाश होेने के कारण स्पष्ट रूप से दर्शन नही कर सकें, और वही से प्रणाम कर दी। और  जब आगे कर दर्शन किए तो हैरान हो गए कि जिसने उन्हे रास्ता बताया वहीं गुरू नानक देव हैं। और फिर उनके  चरणों में प-सजय़कर माफी मांगी, लेकिन सतगुरू जी ने इसके लिए उन्हे कुछ नहंी कहा। मन ही मन में यह  दुर्भावना थी कि आज मैं उपर घोड़े पर था, और सतगुरू जी मु-हजये नीचें। कुछ समय गुरू जी केे सामने ही बैठे  रहें, गुरू जी ने उनसे सवाल पूछा कि सब कुछ कुशल मंगल हैं, वह क्या कहते उनके सामनें। गुरू जी ने कहा कि  तुम्हारा नाम लहणा है हमने तु-हजये कुछ देना है और आपके कुछ लेना है,ं अब आप अपने स्थान वापस चले  जाओं, और बाद में आना। सतगुरू जी के दर्शन करके मन को बहुत ही तसल्ली मिल गई। और उसके बाद वहां से  आ गए। करतारपुर साहिब के बाहर संगत उनकी प्रतीक्षा कर रही थी   कब भाई लहणा जी बाहर आए और  हम उनके साथ जाए। पर जब भाई लहणा जी आए तो उन्होने इस बार कहा कि मु-हजये अब ज्वाला देवी के  दर्शन नहंी करने जाना, मै तों वापस जा रहा हूं। सारी संगत हैरान थी कि आज इन्हे क्या हो गया है। हर साल  अपने आप हम सब की अगवाई करते है जब भी हम तीर्थ पर जाते है तो इस बार तो जाने से
भी मना कर दिया। कुछ लोगो ने पूछा कि सब कुछ ठीक
तो है। आप तो हर बार हमारे साथ जाते हों फिर आज
क्यों नही जा रहें। भाई लहणा जी ने कहा कि जो शहद
की तलाश करता हों और उसे अमृत मिल जाए तो उसकी तलाश
खत्म हो जाती हैं, फिर वह कभीा भी शहद का लालच
नहीं करता। और यह कह कर भाई लहणा जी वहां से चले
गए, व अपने गांव में वापस आ गए।
लेकिन घर आकर तो उनका मन ही नहीं लग रहा। जिस
भी काम को करने लगते सतगुरू जी की याद आ जाती। न तो

च्तपजमेी ळंतह
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रात को नींद आती, और न ही भूख। भाई संतोख
सिंह जी ने बिरहा की अवस्था को बहुत ही सुंदर वर्णन
किया है। फिर एक दिन उन्होने निर्णय ले लिया कि वह अब
करतारपुर साहिब चले जाएंगे। फिर अगले दिन ही चलने लगे,
तो मन में विचार आया कि सतगुरू जी के क्या लेकर जाउ 3 । उस
समय उनके घर में एक नमक की बौरी पडी थी उसी ही
साथ में लेकर चल पड़ें। गांव के कुछ लोगो ने कहा
कि भाई जी आप यहां सबसे ज्यादा परिचित है, व गांव के
प्रत्येक लोग आपकी आज्ञा का पालन करते है। आप यदि किसी
को भी कहेगे तो वह आपके साथ इस बोरी को लेकर
चलने के लिए तैयार हो जाएगा। पर भाई लहणा जी ने
उन्हे कुछ नहंी कहा। और अपने आप ही बौरी को सिर पर
उठाकर चलते बनें।
रास्ते में शाम हो गई, फिर गुरू जी के नगर पंहुच
गए। पर सतगुरू जी तो घर पर थे ही नहीं। वह तो खेतों
में गए हुए थें। भाई लहणा जी को जब माता
सुलखनी जी से पता चला कि गुरू जी तो अभी यहां नहीं है

3 टकसाल में एक ग्रंथ प-सजय़ाया जाता है उसमे लिखा है कि जब भी किसी राजा, गुरू, वैद्य के साथ
जाओं तो कुछ अपने साथ लेकर जाना चाहिए, वहां से वस्तु कई गुना होकर वापस मिलती है।

वह तो खेतो में गए हुए है तो वह भी खेतो की तरफ
चले गए। और वहां पर जाकर गुरू जी को प्रणाम किया। गुरू जी
ने उन्हे कुछ खेती से संबंधित काम दिया। लेकिन पहले
कभी भी न करने के कारण वह उसे सही तरह से नही कर
सके। फिर गुरू जी ने उनके सिर पर एक गठ्ठा रखवा दिया और
कहा कि इसे लेकर धर्मशाला में चले जाओं। गठ्ठे से
मिट्टी वाला पानी निकला रहा। जिसके कारण भाई लहणा
जी के साफ वस्त्र खराब हो गए,लेकिन उन्होने इसकी
कोई चिंता नहीं करी। जब घर पर पहुंचे तो माता जी
उन्हे इस हालत में देखकर बहुत नाराज हुई। कि गुरू जी
ने एक नोजवान जो काफी थक कर आया था उसे ही यह
सेवा दे दी। जब शाम को गुरू जी वापस आए तो इसके लिए
माता जी गुरू जी से बात भी की। पर गुरू जी ने कहा कि
तुम्हारेे लिए यह गठ्ठा कीचड़ से भरा हुआ था। पर
हमने तो उसके सिर पर पूरी दुनियां का भार रख दिया हैं।
उसके बाद भाई लहणा जी गुरू जी के साथ ही रहने
लग गए। करतारपुर साहिब में रोजाना ही बहुत अधिक संख्या में
संगत आती थी। एक बार करतारपुर साहिब में बहुत अधिक संगत
आ गई। बहुत दूर-ंउचयदूर से संगत गुरू जी का जस सुन कर उनके
दर्शन करने के लिए आती थी। इस बार जब संगत आई तो हर
तरफ तंबू ही तंबू दिख रहे थें। अचानक ही वहां तेज
बारिश होने शुरू हो गई। बारिश पड़नी शुरू हुई तो
खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी। एक दिन पूरा बित
गया लेकिन बारिश बंद नहीं हुई। हर तरफ पानी-ंउचयही-ंउचयपानी

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दिख रहा था। कोई भी लंगर न बन सका। दूसरे दिन
भी यहीं हालत थीं तीसरे दिन जाकर बारिश बंद हुई।
लेकिन उस समय भी पानी अत्धयिक होने के कारण कोई
भी लंगर न बना पाया। तो गुरू जी ने अपने बडे़ पुत्र
भाई श्रीचंद जी को कहा कि सामने वाले पेड़ को
हिलाया उससे काफी सारे पदार्थ गिरेगे। तीन दिन हो गए
है लेकिन संगत ने कुछ भी नहीं खाया। जल्दी जाओं।
लेकिन साहिब जादें ने यह कह कर मना कर दिया। कि सतगुरू जी
पेड़ से आपने कभी फलो के अलावा और कुछ गिरता
हुआ देखा है। हमने तो आज तक इस बारे ंमें भी
कभी नहंी सुना। आप तो ऐसे ही कह रहे हों, लोग तो
मु-हजय पर हंसगे। फिर सतगुरू जी ने अपने दूसरे साहिबजादें
बाबा लखमी चंद जी को कहा लेकिन उन्होने भी यह कह
कर मना कर दिया। कि सतगुरू जी पेड़ को हिलाने से कुछ
नहीं होगा। वहीं पर भाई लहणा जी भी बैठे हुए
थें। सतगुरू जी ने फिर उन्हे कहा कि तुम ऐसा करों। यह
सुनते ही भाई लहणा जी ने यह नहीं सोचा कि सतगुरू जी
किस बारें में ऐसा करने को कह रहे है बस सतगुरू जी ने
आज्ञा दी और मानने के लिए उठ चल दिए।

जब पेड़ को हिलाया तो उसमें से वास्तव में बहुत
स्वादिष्ट फल, पदार्थ गिरें। सतगुरू जी ने कहा कि इसे
संपूर्ण संगत को बांट दों। हर कोई हैरान था कि
कैसे किसी पेड़ से इतने स्वादिष्ट फल, पदार्थ गिर रहे है।
और उनका स्वाद भी ऐसा जो आज तक कभी भी जीभ
ने नहीं किया हो। यहीं सतगुरू जी की पहली परीक्षा थी।
जो उन्होने अपने पु़त्रों की ली थी। जिसमें वह असफल
हो गए। 4
करतारपुर साहिब में हर रोज काफी अधिक संगत आती
थी। हर बहुत सारे गुरसिख तो ऐसे थे जो हर रोज ही
वहां पर रहते थें। जिनकी संख्या भी काफी अधिक थी।
एक दिन सतगुरू जी ने हुक्म जारी किया कि अब से केवल एक दिन
छोड़ के लंगर बनेगा। और सभी खेती करेंगे। इस
हुक्म से कई सिख प्रभावित हुए। सतगुरू जी पहले दिन-ंउचयभर
खेती करवाते थें और बाद में केवल एक दिन बाद लंगर।
जिससे कई सिख तो करतारपुर साहिब को छोड़कर भी जाने
शुरू हो गए। कुल संख्या मे से 25 प्रतिशत सिख तो चले गए।
कुछ दिनों बाद सतगुरू जी ने एक और नियम बना दिया। कि
अब केवल दो दिन बाद ही भोजन मिलेगा। इस नियम से तो
जो बचें हुए सिख रह गए थें उनमें से 25प्रतिशत और
चले गए। जब इतने सिख चले गए। तो गुरू जी ने लांगरी सिख
को दिन में दो दिन लंगर बनाने का हुक्म दे दिया। जब
खेती को काटने का समय आया। और सिखों ने फसल काट

4 वैसे यह भी सतगुरू जी की अपनी ही इच्छा थी कि वह किसका ध्यान किस तरफ आकर्षित कर
दें। ऐसा क्या संभव है कि जगतगुरू नानक देव जी के पुत्र उनकी बात न माने!

च्तपजमेी ळंतह
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दी। तब सिखों ने गुरू जी से कहा कि गुरू जी अब हम क्या
करें।
सतगुरू जी ने कहा कि जो हम कहेगें क्या तुम सभी
वहीं करोंगे सिखो ने कहा जी गुरू जी। गुरू जी ने कहा
कि ठीक हैं अगर तुम्हे सही लगता है तब तो हमारी बात
मान लों अन्यथा रहने देना। जितनी भी तुमने
फसले उगाई है। उस आग लगा दों
हमारी संगत यह अनाज नहीं खाईगी। इसमें बहुत ही
ज्यादा अंहकारी की भावना है। सारे ही सिख हैरान थें
कि हमने इतनी मेहनत से खेती करी। और अब जब फसल तैयार
हो गई है तो सतगुरू जी कह रहे है कि तुम इस आग लगा
दों। फसल तो हमारे लिए संतान के समान है कोई अपनी
संतान की भी हत्या करता है। पर कुछ सिख न चाहते हुए
भी उन्होने फसल को आग लगा दी। और सिखों की एक
वर्ष की मेहनत कुछ ही मिनटों में स्वाह् हो गई।
इस घटना के बाद जो 50 प्रतिशत सिख रह गए थें। उनका
मनोबल भी टूट गया। और उनमें से 25 प्रतिशत और
सिख भी चले गए। अब केवल 25 प्रतिशत सिख ही रह गए। अब

सतगुरू जी ने इनमें से भी परीक्षा लेनी है कि क्या यह मेरी
गद्दी के योग्य है।
अगले दिन सतगुरू जी ने काफी भयानक वेश बना लिया।
सिर पर पंख लगा लिए जैसे शिकारीा जब जंगल में पशुओं को
पकड़ने के लिए जाते है तो वह कभी-ंउचयकभी अपने सिर पर
पंख लगा लेते है ताकि जानवरों को उनको पहचानने
में कोई परेशानी न हों। और सतगुरू जी ने काफी
ही भयानक भेष बना लिया, जिससे सारे सिख डरने लगे गए।
उनके हाथ में एक डंडा था। जो भी उनके पास आता
उसे डंडे से वार करतें। और जंगल की तरफ भाग गए।
पीछे-ंउचयपीछे भाई लहणा जी भी थें। सतगुरू जी के
चेहरे लाल, उनकी आंखें भी लाल थी। जो उनके
क्रोध को प्रत्यक्ष कर रही थी। सतगुरू जी के इस स्वरूप से
तो कई सिख ऐसे ही वहां से भाग गए। सतगुरू जी ने
भाई लहणा जी को अपने पीछे आते हुए जब देखा तो
उन्हे हुक्म दिया। कि तुम वापस लौट जाआंे। भाई
लहणा जी हुक्म मानते हुए वापस चले गए। करतारपुर साहिब में
सिख बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे। उनमें से 25 प्रतिशत मे
ंतो केवल 12 प्रतिशत सिख ही रह गए थें, जिन्होने यह कसम
खाई हुई थी कि चाहे गुरू जी भूखा मार दें या फिर
ऐसे हम तो सतगुरू जी को छोड़कर कभी भी नहीं
जाएगे।
उन्होने जब भाई लहणा जी को अकेले आते हुए
देखा तो उन्हे कुछ अनहोनी की शंका हुई।
भाई लहणा जी ने सबको दिलासा दिया कि सतगुरू जी परमेश्वर

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का अवतार है। वह जो कुछ भी करते है। उनमें हम सब
की भलाई है। कुछ समय बात सतगुरू जी वापस आ गए।
और जोर से उंची आवाज में कहा कि तुम में से
कौन-ंउचयकौन मेरे सिख है। गिनती के 10-ंउचय12 सिख थें
सभी ने कहा कि सतगुरू जी हम सब आपके सिख है। सतगुरू जी ने
कहा ठीक है फिर चलों मेरे साथ। कुछ दूरी पर चलकर वह
एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां पर लाश पड़ी हुई थी।
और उसके उपर कपड़ा पड़ा था। सतगुरू जी ने जोर से
कहा कि जो भी अपने आप को मेरा सिख मानता है मैं
उसे हुक्म देता हूं कि इस लाश को खाना शुरू कर दें।
जितने सिख थे वह तो सारे ही भय से कांपने लग गए। इतने
विस्माद तो वह उस समय भी नहीं हुए थे जब सतगुरू जी ने
उन्हे फसल को जलाने के लिए कहा था। जब कोई भी
सिख खाने को तैयार न हुआ। तो सतगुरू जी ने सबको
डंडा मारना शुरू कर दिया। जिससे सारे सिख ही नीचें मुंह
करके वहंा से भागने लगें। वह कुछ तो वहीं
पेड़ों के पीछे ही छुप गए कि सतगुरू जी ने कही हमे देख
लिया तो हमारे पीछे पड़ जाए। जितने भी थे उनमें से
सारे ही चले गए। केवल भाई लहणा जी रह गए।

सतगुरू जी ने कहा तुम क्यो नहीं जाते। तो भाई
लहणा जी ने कहा कि सतगुरू जी मेरा तो आपके सिवाय और
कोई भी नहीं है। फिर सतगुरू जी ने कहा कि यदि आपका
मेरे सिवाय कोई भी नहीं है तो मेरा हुक्म है कि
तुम यह देह खानी शुरू करों। भाई लहणा जी ने
भाई निम्ररता व सरलता से पूछा कि गुरू जी कहां से खानी
शुरू करू सिर वाले कोने से या फिर पैर वाले। सतगुरू जी ने सिर
की तरफ इशारा किया। भाई लहणा जी ने जैसे ही कपड़ा
हटाया तब तो वह देखकर हैरान ही हो गए। इसमे तो देग
है। सतगुरू जी उनसे बहुत प्रसन्न थें। और अब तो सारी
संगत को पता चल गया था कि सतगुरू जी की गद्दी के मालक
उनके पुत्र नहीं बल्कि उनके सेवादार भाई लहणा जी ही
होगें। वही इसके असली हकदार भी है।
जब माता सुलखनी जी को यह पता चला कि मेरे पुत्र को
गुरू जी गद्दी नहीं दे रहे। तो वह बहुत ही नराज हो कर
गुरू जी के पास आई और उन्हे कहा कि आज तक पिता की
संपत्ति का अधिकार उसके पुत्र को हकदार होता है। आज तक
हर किसी ने अपनी संपत्ति अपनी संतान को ही दी है। फिर आज
आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे है। अपने पुत्र को गद्दी की
मालिक न बनाकर लहणें को वारिस क्यों बना रहें है।
गुरू जी ने कहा कि गद्दी तो उसे ही मिलेगें जिस पर परमेश्वर
की कृपा होगी। मैनें अपने पु़त्रों की कई बार
परीक्षा ली। लेकिन वह हर बार असफल ही रहें। हर बार मैने
उन्हे पहला अवसर दिया। लेकिन उन्होने इस पर कोई

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प्रतिक्रिया नहीं की। और अगर आप चाहती हो तो मैं एक
बार फिर से उनकी परीक्षा लूंगी।
अगले दिन जहां पर सतगुरू जी विराजित थी। वहीं पर अचानक
से एक बिल्ली मरें हुआ चूहा फेंक कर चली गई। जिससे
सारा वातावरण में गंध फैल गई। सतगुरू जी ने अपने बडे़
साहिबजादे भाई श्रीचंद जी को कहा कि तुम इसे उठाकर
बाहर फेंक दों। लेकिन उन्होने कहा कि सतगुरू जी अब यह
आपकी कौन-ंउचयसी लीला है। पहले आपने सबको मरे हुए देह
को खाने के लिए कहा। और जब लहणा उसे खाने लगा तो
आपके उसे देग बना दी। अब आप इस क्या बन दोंगे। मैं
तो इसे नहीं उठांउगा। और उन्होने नीचें मुंह
कर लिया। सतगुरू जी ने अपने दूसरे साहिबजादें भाई लखमी
चंद जी को कहा कि तुम ऐसा करों। तो उन्होने भी
मना ही कर दिया। फिर सतगुरू जी ने भाई लहणा जी को कहा
तो वह सुनते ही खड़ें हो गए। और उन्होने उस
मरें हुए चूहें को उठाया और फिर बाहर फेंक कर आ
गए।
सतगुरू जी ने माता जी की तरफ देखा। अगली रात सतगुरू जी
ने अपने साहिबजादे बाबा श्री चंद जी को कहा कि तुम अभी

जाकर यह कपड़ा धोकर आ जाओं। 5 इस पर बाबा श्री चंद जी
ने कहा कि सतगुरू जी इस समय तो काफी रात हो चुकी है,
और बाहर भी काफी ठंड हो रही है। आप यह सुबह
धुलवा देना। आगे सतगुरू जी ने उन्हे कुछ भी नही
कहा। फिर सतगुरू जी ने अपने दूसरे पुत्र को कहा।
उन्होने भी रात होने के कारण मना कर दिया। वहीं पर
भाई लहणा जी भी थें, सतगुरू जी ने उन्हे कहा कि
ओंह, अच्छे भाग्य वाले अब तू ही जा और इन्हे
धोकर लेकर आ। सतगगुरू जी की हुक्म सुनकर भाई लहणा
जी उठें। और बाहर कपड़ा लेकर आ गए। और धोकर वापस
रात को सुखाने के लिए रख दिया।
अगले सुबह, सतगुरू जी एक बर्तन नाले में गिर गया। सतगुरू
जी ने फिर अपने पुत्र बाबा श्री चंद जी को कहा कि वह इसे
नाले से निकाल दें इस पर उन्होने कहा कि पिता जी, घर में
इतने सारे बर्तन है फिर भी आप इसी पर क्यों इतना ध्यान दे
रहे हैं मैनें आज नए कपड़ें पहने हुए है अगर मैं
इसे निकालने जाउंगा, तो कपड़ें गंदे हो जाएगे। इसके
साथ, ही मेरे साथी भी मेरे बारे में बुरा ही
कहेगें। सतगुरू जी ने अपने दूसरे पुत्र को कहा तो
उन्होने भी मना कर दी। फिर सतगुरू जी ने भाई लहणा
जी को इशारा किया। उन्होने भी काफी सुंदर कपड़ें
पहने हुए थें, लेकिन सतगुरू जी के हुक्म के आगे
उन्होने किसी की तरफ भी ध्यान न दिया। और नाले में

5 सतगुरू जी के अपने-ंउचयपास केवल दो ही धोतियों रखते थें, एक पहन लेनी
फिर दूसरी बाद में धो देनी।

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छंलाग लगा दी। और सतगुरू जी का बर्तन निकाल कर दे दिया।

अब तो हर जगह संगत में केवल बात करने का यहीं विषय
था कि सतगुरू जी अपनी गद्दी अपने पुत्र को न देकर अपने
सेवक भाई लहणा जी को ही देगे। इस बात का जब बाबा
बु-सजय़ा जी को पता चला कि सतगुरू जी अपनी गद्दी भाई
लहणे को देंगे तो उन्हे भी एक मिनट के लिए ऐसा लगा
कि मैं भी तों सतगुरू जी के काफी समीप हूं फिर मु-हजये
क्यों नहीं।
सतगुरू जी बाबा बु-सजय़ा जी के मन की बात को जान गए
और उन्होने एक और परीक्षा लेने की योजना बनाई।
एक रात को बाबा बु-सजय़-सजया जी, व भाई लहणा जी गुरू
जी के पास ही सो रहे थें। सतगुरू जी ने रात को बाबा
बु-सजय़-सजया जी कहा कि महा पुरखा देखो बाहर कितनी रात रह
गई है। अमृतवेला हो गया है क्या नहीं। बाबा बु-सजय़ा
जी बाहर देखने गए और फिर तारों के हिसाब से अनुमान
लगाकर वापस लौट आए। और सतगुरू जी कहा कि सतगुरू जी अभी
काफी रात पड़ी हैं, आप आराम करों सतगुरू जी ने फिर कहा
नही पुरखा तुमने सही से नहीं देखी। दुबारा जाओं

और देखकर आओं। बाबा जी फिर गए फिर उन्होने
अनुमान लगाया और फिर सतगुरू जी को वहीं उत्तर दिया।
सतगुरू जी ने फिर से यही कहा कि तुम एक बार दुबारा से बाहर
आसमान देखकर के आओं। सतगुरू जी का हुक्म पाकर वह फिर
से गए। 6 और फिर उन्होने सतगुरू जी को यहीं कहा।
फिर गुरू जी ने भाई लहणा जी को कहा कि भाई एक
बार तुम बाहर जाओं और देखकर आओं कि कितनी रात
शेष रह गई है। वह गए और उन्होने भी यही
अनुमान लगाया और फिर आ गए। और यहीं कहा कि सतगुरू जी
बाबा बु-सजय़-सजया जी ठीक कह रहे थें। गुरू जी ने उन्हे
भी यही कहा कि एक बार फिर से देखकर आओ। वह फिर गए।
उन्होने मन में सोचा कि सतगुरू बार-ंउचयबार ऐसा प्रश्न ही
क्यों कर रहे है। आज से पहले तो उन्होने कभी भी
किसी को रात देखने के लिए नहंी भेजा फिर आज क्यों।
वह सम-हजय गए और अबकी बारा उन्होने कहा कि सतगुरू जी जितनी
रात आपने बितवाई उतनी बीत गई। जितनी आपकी कृपा से रह
गई है। उतनी ही शेष है। सतगुरू जी उनके उत्तर से
काफी प्रसन्न थें और बाबा बु-सजय-सजया जी का भ्रम भी
दूर कर दिया।
सतगुरू जी ने भाई लहणा जी व अपने साहिबजादियों की
कई बार परीक्षाएं लें। लेकिन इन सब में भाई लहणा जी
अव्वल उतरें। अब सारी संगत में केवल एक ही बात का

6 वास्तव में सतगुरू जी तो उनकी परीक्षा ले रहे थें, लेकिन वह
सम-हजय ही नहीं पाए। सतगुरू जी तो यह जानना चाहते थे कि यह क्यों
उत्तर देगें।

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विषय था कि सतगुरू जी शायद अब हमें छोड़कर चले
जाएगें। तभी तो उन्होने अपनी गद्दी को देने के
लिए इतनी परीक्षाएं ली।
एक दिन सतगुरू जी ने भाई लहणा जी को बुलाया।
और उन्हे आत्मज्ञान दिया। सतगुरू जी ने कहा कि वह तो
केवल शरीर रूप उनके साथ नहीं होंगे। लेकिन उनकी
आत्मा तो उनमें मिल जाएगी। आत्मा तो वह है। जो
कभी भी नहीं मरती, न जन्म लेती है। वह तो परमेश्वर का
अपना ही अंग है। कुछ समय बाद सतगुरू जी ने भाई लहणा
जी को गद्दी देने का दिन भी तय कर दिया। काफी
दूर-ंउचयदूर से संगत आई। सतगुरू जी ने भाई लहणें जी
को एक नारीयल दिया 7 और पांच पैसे। और उन्हे कहा कि
7 कुछ लोग शंका करतेे हैं कि सतगुरू जी ने नारियल ही
क्यों दिया वह तो हिंदूओं का फल है। पर ऐसा कुछ
नहंी है। नारियल पर कहीं नहंी लिखा कि वह हिंदुओं
के लिए ही है। कुछ विद्वान तो ऐसे भी हैं जो किसी
व्यक्ति के व्यवहार की तुलना भी फलों से करते हैं।
जैसे नारियल काफी बाहर सख़्त होता है लेकिन अंदर से काफी
नरम। उसी तरह कुछ लोग इस संसार में ऐसे भी होते है।
जो बाहर से काफी सख़्त होते है। लेकिन अंदर से काफी

आज से तुम इस सारी दुनिया के गुरू हो। उसके बाद सतगुरू जी
ने उनके चरण पकड़ें। जिससे भाई लहणा जी को काफी
बुरा लगा कि सतगुरू जी ने आज मेरे जैसे तुच्छ मनुष्य के चरण
छुए है। उन्होने कहा कि इन्हे तो कोड़ लग जाना
चाहिए। जैसे ही उन्होने यह कहा कि इन्हे तो कोड़
लग जाना चाहिए उसी समय उनके अंगुठे में कोड़ लगना
शुरू हो गया। तभी सतगुरू जी ने उसे रोक लिया। और कहा
कि आज से जो भी आप कहोगें वह सच हो जाएगा। आज तो
हमने इसे रोक लिया लेकिन आगे से ऐसा कभी भी मत
करना। और सभी संगत को हुक्म दिया कि वह गुरू अंगद जी
को आज से अपना गुरू माने। सतगुरू जी ने अपने सपुत्रों को
भी गुरू अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने को कहा।
लेकिन वह नहीं आए।

कुछ ऐसे जो दुसरो की कहानियां प-सजय़ते
हैं;कुछ ऐसे जिनकी दुनिया में कई तरह
लोग होते है। कहानियां दूसरे प-सजय़ते

नरम होते है। इसके विपरीत आम जो काफी मिठा होता
है। लेकिन अंदर से उसमें काफी बड़ी गिटक होती है।
उसी तरह कुछ लोग जो बाहर से काफी मिठे होते है।
लेकिन उनमें काफी अवगुण होते हैं। इसके अतिरिक्त
फल तो कुदरती होते है। उन पर किसी विशेष धर्म,
संस्था, समूह का ही नहंी अधिकार होता। कोई भी
उनका प्रयोग कर सकता है।

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