Shri Guru Nanak's Story
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एक बार नवास दौलत खान गुरू नानक देव के पास आया। और उसने गुरू जी को कहा कि गुरू जी आप तो सारे ही धर्मों को मानते हों। फिर आज आप हमारे साथ नमाज क्यों नहीं पढ़ने चलते। सतगुरू जी ने कहा ठीक है लेकिन वहां पर हमारे साथ अन्य कोई होना चाहिए। सतगुरू जी उसके साथ चल पड़ंे। भाई संतोख सिंह जी अपने ग्रंथ नानकप्रकाश मे लिखते है कि वहंा पर गुरू जी को नमाज पढ़वाने के लिए लेकर जा रहे नवाब के साथ अनेक ही लोग थें।
उसका एक सेवादार भी था जो थोड़ा चालक था, लेकिन वह भी सतगुरू जी की अवस्था नहीं जान पाया। और उसने सतगुरू जी को कहा कि गुरू जी नवाब का मन नहीं था यहां पर लेकिन मेरा मन तो यही पर था। सतगुरू जी ने कहा कि तुम्हारा मन भी यहां नहंी था। तुम भी अपने घर में थोडी के बच्चें की चिंता कर रहे थे कि मैं उसे खुला ही छोड़ आया हूं। कहीं वह कुंए में न गिर जाए। ऐसे में वह भी सतगुरू जी को जान गया, कि यह कोई आम संत नहीं है, बल्कि ईश्वर का ही रूप है।
फिर नवाब दौलत खान ने सतगुरू जी को सवाल किया कि गुरू जी मन को तो जितना भी एक स्थान पर टिकाने की कोशिश की जाएं पर यह तो टिकटा हीं नहीं है। तो सतगुरू जी ने कहा कि जिस प्रकार पारा में एक विशेषता होती है कि वह हल्की-सी चंचलता से ही हिल जाता हैं। यहीं स्थिति हमारे मन की भी है यह भी कुछ गतिविधि से हिल जाता है। लेकिन जब कोई सिद्ध पुरूष पारा के हिलने के तत्व को उसी में समाप्त कर दे तो वह हिलना बंद हो जाएगा। इस तरह, जब कोई सिद्ध पुरूष, जिसका मन उस निंरकार में लगा हुआ हों, जब वह किसी अन्य के मन के हिलने के गुण को समाप्त कर दे ंतो उसका मन भी एक स्थान पर टिक जाता है।
सतगुरू जी के बचन सुनकर नवाब दौलत खान सतगुरू जी से काफी प्रभावित हुआ। और उनकी ही शरण में पड़ गया।
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