Shri Guru Harkrishan Sahib Ji
Shri Guru Harkrishan Sahib Ji |
बहुत-से लोगों ने गुरू जी के छोटी उम्र पर संशय भी किए। कि कोई 5 साल का बालक कैसे गुरू बन सकता है। पर वास्तव मेंं गुरू तो, एक ज्ञान का ज्योत स्वरूप है जो किसी भी उम्र का मोहताज नही। कभी यही ज्योत गुरू अमरदास जी जो काफी बुजर्ग थें उनमें विराजित होती है तो कभी गुरू हरकृष्णि साहिब जी मे। भाई गुरूदास जी लिखते है कि जैसे एक हीरा छोटा—सा होता है लेकिन उसका मूल्य अन्य सभी रत्नो, जवाहरों से अधिक होता है। इसीप्रकार गुरू जी का स्वरूप हैं। दुसरा उदाहरण देते हुए वह लिखते है कि जैसे हम आज एटीएम से पैसे निकालते है वैसे ही पहले भी जब कोई बाहर जाता था जो वह अपने पड़ोस के किसी साहूकार से छोटे—से कागज पर कुछ लिखकर दे देता है और जब बाहर जरूरत पड़ने पर वह किसी भी साहूकार से उस कागज को दिखाकर धन ले सकता है। वह छोटा—सा कागज भी इतना मूल्य रखता है। ठीक इसी प्रकार, गुरू जी भी जो छोटी उम्र में है। उनसे भी कोई ज्ञान ले सकता हैं। इसी तरह भाई संतोख सिंह कहते हैं, "सुबह का सूरज आकार में छोटा दिखता है, लेकिन उसका प्रकाश हर जगह होता है। गुरु हर कृष्ण की प्रसिद्धि असीमित थी।" जो लोग उसे देखने आए थे, उन्हें सच्चे ज्ञान का उपदेश दिया गया था। उनके मन की मनोकामनाएं पूरी हुई और उनके पाप मिट गए।
क्यों आपको छोटी उम्र मेंं गुरूदागदृी मिली—
गुरू जी जब 5 वर्ष के थें तब ही उनके पिता श्री गुरू हरिराय साहिब जी ने उन्हें गुरू बनाकर अपने आप जोति-जोत समा गए। क्योंकि आपके बड़े भाई रामराय जी जो कि धन, संसार के मान आदि मे ही उलझ कर रहगए थें। जब उन्न्हे पिता गुरू हरिराय साहिब जी ने दिल्ली औरंगजेब से मिलने भेजा था। क्योंकि वह गुरूघर की शक्ति देखना चाहता था, लेकिन गुरू हरिराय साहिब जी उसे दर्शन नही देना चाहते थें इसलिए उन्होने अपने साहिबजादे रामराय को इसके लिए दिल्ली भेजा। इसके साथ ही वर भी दिया कि जो भी वह कहेगा वह सत्य हो जाएगा। वहां जाकर उन्होने औंरगजेब को काफी शक्तियां दिखाई जिससे वह उनसे काफी खुश हो गया, लेकिन उसके मंत्रियों ने नंरगे के कान भर दिए कि इसके गुरूओंं द्वारा रचित बाणी मे मुसलमान धर्म के लिए गलत शब्द का प्रयोग किया गया हैँ जब उन्होने इसके बारे में बाबा रामराय जी से पूछा तो उन्होने सोचा कि यदि मैं सच कहूंगा तो बादशाह के दरबार मे जो उसकी छवि है खराब हो जाएगी, और उसे जो धन मिलता है वह भी नही मिलेगा। इसी कारण वश उन्होने यह कह दिया कि उसके मुसलमान नही बल्कि बेइमान की बात की गई है जब इसकी सूचना गुरू पिता हरिराय जी को पता चला तो उन्होने बाणी के बेअदबी के कारण उसे उसी समय अपने शक्ल न दिखाने का श्राप दिया और वही दिल्ली जाने को भी आदेश दिया। फिर गुरू हरिराय साहिब जी ने अपना शरीर त्यागना का समय नजदीक जानकर आपकों गुरू बना दिया।लेकिन आपके गुरू बनने पर रामराय को बिल्कुल पसंद नही आया। और उसने दिल्ली मेंं औरंगजेब को दिल्ली लाने के लिए मना लिया। लेकिन गुरू जी तो दिल्ली जाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नही थें लेकिन फिर वहां पर संगतो के विनती करने पर गुरू जी ने भी दिल्ली जाने का निर्णय लिया।
जब गुरू जी अंबाला आए गुरूद्वारा पंजोखरा साहिब का इतिहास
जब बाला प्रीतम श्री गुरू हरिकृष्ण साहिब जी कीरतपुर साहिब से दिल्ली जा रहे थें तो गुरूदेव ने तीनों दिनों के लिए अंबाला मे गांव पजोखरा में रात्रि विश्राम के लिए ठहरे थें गुरूदेव के आगमन की सूचना को सुनकर काफी संगत उनके दर्शन के लिए आई। उसी गांव में रहने वालें एक पड़ित जिसें अपनी विद्या का अत्यधिक अभिमान था उसने गुरू जी के पास जब इतनी अधिक संगतों को देखा तो उसने एक सिख से पूछा कि यह कौन हैं। और इनके पास इतनी सारी संगत उनके पास क्यों जा रही हैं। जब उसे पता चला कि यह अष्टम बलबीला, बाला प्रीतम श्री गुरू हरिकृष्ण साहिब जी है तो उसे शंका हुई कि पहले तो इन्होने अपने नाम के आगे गुरू रखवा लिया। फिर भगवान कृष्ण से भी बड़ा नाम रखवाया लिया। हरिकृष्ण!! द्वापर युग मेंं भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था जिन्होनें अपने कंठ से गीता उचारी थी इन्होने अपना नाम श्री गुरू हरिकृष्ण साहिब रखवाया हुआ हैं क्या इन्हें उस गीता का एक भी अर्थ पता हैं। उस सिख ने जब यह सारी बात गुरू जी को बताई तो गुरू जी ने कहा कि उस पड़ित को कहा कि वह अपने आप ही हमारे पास आकर अपनी शंका दूर करवा लें। जब वह गुरू जी के पास पहुंचा तो गुरू जी ने उसकी तरफ बहुत ही तरस-भरी दृष्टि से देखा कि मनुष्य की संसार को देखने के लिए दो आंखें होती हैं। इसी तरह संसार को जानने के लिए बुद्धि की भी दो आंखें होती हैं। लेकिन इसकी तो दोनों आंखों पर ही एक पर्दा डला हुआ हैं। एक तो इसे अपने पंडित होने का अभिमान हैं और दूसरा इसके पास इतनी विद्या का गर्व हैं। गुरूदेव ने कहा कि पडिंत जी अगर हमने गीता के किसी भी शलोंक का अर्थ किया तो आपकों लगेगा कि किसी राजा महाराजें का पुत्र है कहीं से अर्थ सिख लिए होगे। फिर भी आपका शंका दूर नहीं होगा। अत: आप अपनी इच्छा से गांव से किसी भी व्यक्ति को ले आओं। हम गुरू नानक देव जी की कृपा से अर्थ करवा देंगे। वह पडिंत सोच रहा था कि मैं ऐेसे व्यक्ति को ढुंढ कर लाउंगा जिसने कभी अक्षर देखे भी नहीं होगे।
यही सोच कर वह गांव में ही रहने वालें छज्जु जो बुद्धि से भी भोला था और जिसे सुनता भी सहीं से नहीं था। उसको गुरू जी के सामने लेके आया। भाई संतोख सिंह जी चूरामणी लिखते है कि उसने तो कभी किसी को विद्वया पढ़ाते हुए भी नही देखा था भाव बहुत अधिक भोला था। गुरू जी ने उस छज्जु की तरफ किृपा दृष्टि से देखा और उसको स्न्नान करवाने का हुक्म दिया। जब उसको स्रान करवाकर लाया गया तो गुरू जी ने अपनी छड़ी उसके सिर पर रख थी और कुछ समय बा उसनें पडिंत जी को कहा कि वह गीता का कोई भी श्लोक पढेÞ। जिसने कभी किसी के सामनें हल्का-सा भी बहुत मुश्किल से बोला था आज वही छज्जु जिसने अपनी उम्र के अत्यधिक समय विद्या सिखने में लगवा दिया उस पडिंत को श्लोक पढ़ने के लिए कह रहा था। पडिंत जी ने भी विस्माद् होकर गलत ही श्लोक पढ़ दिया। फिर छज्जु ने कहा कि पडिंत जी दुबारा पढ़ों। और अंत में छज्जु ने ही अपने आप ही वह श्लोक पढ़ा और उसके अर्थ किए और गुरूदेव ने उस पडिंत पर तरस करके उसके अंहकार को तोड़ दिया। बाद में वही पडिंत गुरू गोबिंद सिंह के समय अमिृत छककर सिंघ भी बना।
उसके बाद गुरू जी दिल्ली की और रवाना हुए और वहां पर उस समय एक चेचक नामक की बीमारी फैली हुई थी। बहुत—से लोग गुरू जी से इस बीमारी बचने के लिए आए। गुरू जी ने उस बीमारी को दुर करना शुरू कर दिया। जिससे उनके बड़े भाई रामराय को उनपर बहुत ईष्या होनी शुरू हो गई। उन्होने वचन किया कि गुरू जी इस बीमारी के कारण शरीर त्याग देगें। गुरू हरिराय साहिब द्वारा जो रामराय को वरदान दिया थाकि जो भीं वह कहेगा सत्य होगा। उसका मान रखते हुए गुरू जी ने चेचक के बीमारी से शरीर छोड़ दिया। गुरू जी ने दिल्ली मे राजा जय सिंह के बंगले में ठहरे जिस स्थान पर अब गुरूद्वारा बंगला साहिब है। गुरू जी ने अपने शरीर छोड़ने पर भी ओरंगजेब को दर्शन नहीं दिए।
गुरूद्वारा पंजोखरा साहिब मेंं हर साल गुरू जी का आगमन दिवस व उनका जन्मदिवस काफी धुमधाम से बनाया जाता है और अब भी 31,1,2 को वहां पर धार्मिक दीवान संजगें।
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