Bhai Gurdas JI

अगर आपको किसी बड़े व्यक्ति से मिलना है तो सबसे पहले आपको उस व्यक्ति के असिस्टेंट से मिलना होगा। अगर आप गुरबाणी के अर्थ करना चाहते हो तो सबसे पहले आपको भाई गुरदास जी की बाणी पढ़नी होगी। भाई गुरदास को गुरबाणी का पहला दुभाषिया माना जाता है। उनके लेखन को सिख पवित्र शास्त्रों को समझने की कुंजी मानते है।

Bhai Gurdas JI


कविवर संतोख सिंह द्वारा लिखा गुरू नानक देव जी का इतिहास भी भाई गुरदास जी की ही प्रथम वार की व्याख्या हैं। उन्होंने 40 वार (गाथागीत) और 556 कबीत (पंजाबी कविता के दोनों रूप) लिखे। इन लेखों को सिख साहित्य और दर्शन का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना जाता है। उन्हें 1604 में पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव जी द्वारा संकलित सबसे पवित्र सिख ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब या आदि ग्रंथ के लिखने का भी अवसर मिला।

जन्म 

भाई गुरदास के जन्म की सही तारीख ज्ञात नहीं है लेकिन यह कहीं 1543-1553 ईस्वी के बीच का है। 1579 ई. में चौथे सिख गुरु, गुरु राम दास के प्रभाव में भाई गुरदास सिख बन गए। भाई गुरदास गुरु अर्जन देव जी की माता भानी के चचेरे भाई थे। भाई गुरदास ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गुरु अमर दास के मार्गदर्शन में प्राप्त की। भाई गुरदास ने गुरु अमर दास के निर्देशन में के गुरबाणी का प्रचार करने के लिए आगरा, लखनऊ, बुरहानपुर और राजस्थान जैसे दूर के स्थानों की यात्रा की।

हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर अमृतसर) के निर्माण में भी अहम भूमिका

गुरु राम दास के स्वर्गलोक में जाने के बाद भाई गुरदास पंजाब वापस आ गए। उन्हें गुरु अर्जन देव जी की संगति में सिख धर्म का अध्ययन और निरीक्षण करने का अवसर मिला। भाई गुरदास ने हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर अमृतसर) के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाई।
श्री गुरू रामदास जी के बाद काफी संगत गुरू अर्जुन देव जी के बड़े भाई प्रिथी चंद को ही गुरू मानने लग गई थी। भाई साहिब ने संगत में यह सत्य प्रकट किया गुरू अर्जुन देव जी गुरू है न कि भाई प्रिंथी चंद। वहीं मुस्लिम शासक जहांगीर को सिख धर्म और गुरु अर्जन देव जी की बढ़ती लोकप्रियता से जलन होने लगी थी। वह इसे खत्म करना चाहता था। यह सिखों के लिए बड़ी चुनौतियों और कठिनाइयों का दौर था। भाई गुरदास अकाल तख्त साहिब के पहले संरक्षक थे।
बाबा बुद्ध जी हरिमंदिर साहिब के प्रथम ग्रंथी थे। गुरु हरगोबिंद साहिब के समय में, भाई गुरदास गुरु के संदेश को फैलाने के लिए काबुल, काशी, बनारस जैसे कई दूर स्थानों पर गए थे। सिख मण्डली भाई गुरदास से इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने काबुल में उनकी याद में एक गुरुद्वारा बनवाया।

भाई गुरदास की मृत्यु 1629 और 1637 ई. के बीच गोइंदवाल में हुई थी। गुरु हर गोबिंद साहिब ने व्यक्तिगत रूप से उनके शरीर का अंतिम संस्कार किया। भाई गुरदास को चार गुरुओं का साथ पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

गुरु ग्रंथ साहिब के सिख साहित्यकार भाई गुरदास का योगदान

गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 में पूरा हुआ था। इस कार्य को पूरा करने में लगभग 11 वर्ष लगे। भाई गुरदास ने न केवल गुरु अर्जन देव द्वारा निर्देशित आदि ग्रंथ लिखा, बल्कि उन्होंने चार अन्य शास्त्रियों, भाई हरिया, भाई संत दास, भाई सुखा और भाई मनसा राम के लेखन का भी पर्यवेक्षण किया, जो विभिन्न सिख धर्मग्रंथ लिख रहे थे।
भाई गुरदास न केवल सिख धर्म ग्रंथों के व्याख्याकार और सिख धर्म के उपदेशक थे, वे सिख धर्म के चलने वाले विश्वकोश थे।
भाई गुरदास फारसी और संस्कृत और तुलनात्मक धर्म के महान विद्वान थे। वे अनुपम सौन्दर्य के कवि थे। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाएँ वार्स, (पंजाबी गाथागीत, संख्या में ४०) हैं।

भाई साहब जी लिखते है

कुता राज बहालीऐ फिरि चकी चटै।
सपै दुधु पीआलीऐ विहु मुखहु सटै।

यदि कोई कुत्ता सिंहासन पर विराजमान भी हो तो भी वह आटा चक्की चाटता है।
अगर सांप को दूध पिलाया जाए तो भी वह अपने मुंह से जहर निकालेगा।
पथरु पाणी रखीऐ मनि हठु न घटै।।
चोआ चंदनु परिहरै खरु खेह पलटै।।

यदि किसी पत्थर को पानी में भी रखा जाए तो उसकी कठोरता नरम नहीं होती है। गंधक और चंदन-सुगंध को ठुकराकर गधा अपने शरीर को धूल में लपेट लेता है।
तिउ निंदक पर निदहुँ हठि मूलि न हटै।।
आपण हथी आपणी जड़ आपि उपटै ॥१।।

इसी तरह निदंक कभी भी निंदा (अपनी आदत) नहीं छोड़ता है
और अपने अस्तित्व को नष्ट करने के लिए खुद को उखाड़ फेंकता हैं।

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