भले अमरदास गुण तेरे तेरी उपमा तोहि बन आवै Guru Amardas ji

ੴ श्री सतगुरू प्रसादि  

भले अमरदास गुण तेरे तेरी उपमा तोहि बन आवै

गुरू अमरदास जी जिनका जन्म 23 मई,1479 को पिता तेजभान जी व माता लक्ष्मी के घर, गांव बासरके, जिला अमिृतसर मे हुआ। उनका विवाह माता मनसा देवी जी से हुआ। और उनके चार संतान हुए जिनमें से दो लड़के व दो लड़कियां। उनके घर में किसी भी समय की कोई समस्या नही थी।

संत बनने की शुरुआत

श्री गुरू अमरदास जी ने एक दिन अचानक ही निर्णय लिया कि इस जीवन मे खुशी-गम, दुख-सुख तो आते जाते रहते हैं लेकिन बहुत सारे विद्वान, सभी धर्म यही मानते है कि मनुष्य के शरीर में जन्म काफी योनियों के बाद मिलता हैं।  इस योनि मे ंअगर अपना उद्धार करवा लिया तब तो ठीक हैं अन्यथा द्वारा 84 लाख योनियों के बाद ही यह शरीर मिलता हैं। अंत उन्होने निर्णय लिया कि वह साल में छह महीनें तीथ यात्रा पर जाएगे। छह महीने घर पर व छह महीनें बाहर रहेगे। और उन्हाने गंगा पर जाना शुरू कर दिया। एक दिन जब वह वापस गंगा नदी पर स्न्नान करके आ रहे थें तो अचानक उनकी मुलाकात एक पडिंत से हो गई जो काफी विद्वान, प्रभावशाली था। लेकिन जब उसने गुरूदेव जी के पैर पर कुछ चिन्ह् देखे तो उसे अनुभव हो गया कि यह भविष्य में कोई प्रतापी राजा बनेगे। और उन्होने बाबा जी को यह कहकर मना कर दिया कि आपके पैरों में चिन्ह् है जो किसी राजा-महाराजा के पैरों में होता हैं आप जरूर भविष्य में कुछ बनेगे। बाबा अमरदास जी ने उनकों कुछ दक्षिणा देनी चाही।  किंतु उन्होने यह स्वीकार नही की। और कहा जब आप वह स्थान प्राप्त कर लेगे उसके बाद जो मैं मागूगा वह आप मुझे दे देना। बाबा अमरदारस जी उनसे काफी प्रसन्न हुए और उन्होने कहा कि अगर उनकी बात सत्य सिद्ध हुई तो वह अवश्य उसी वही देगे जो वह उनसे मांगगे।
जब वह गंगा नदी पर स्नान करने के बाद अपने वापिस घर आ रहे थें तब वह एक आश्रम मे रूक गए जहां पर उनकी मुलाकात एक ब्रहमचारी से हो गई। और वह भी गुरूदेव के साथ ही चल पड़ा। जब गुरू जी का घर आया और उन्होने अचानक ही बाबा जी से पानी मांगा। और फिर कुछ देर बाद उन्होने पूछा कि तुम्हारे गुरू का क्या नाम है तुमने किसको अपना गुरू बनाया है। इस पर उन्होने कहा कि मुझे अभी तक कोई गुरू नही मिला लेकिन मैं साल मे एक बार छह महीने के लिए तीर्थ पर अवश्य जाता हूं। इस पर उस संत ने कहा कि तुमने अभी तक कोई गुरू नही बनाया। आज मैने उससे पानी पी लिया जो निबुरा हैं। तुमने तो मेरे सारी तपस्या व्यर्थ करवा दी। और वह संत उनसे नाराज होकर संध्या के समय ही उनके घर से चल गया।
लेकिन गुरू जी को यह बहुत चुभ गई जिसके कारण वह सारी रात सो भी नही पाए। यह प्र्रसंग उनके गुरू अंगद देव जी से मिलने से पहले का हैं। अब वह हर रोज यही प्राथना करते थे कि ईश्वर मैने तेरे चरणो से निकलने वाली गंगा की सेवा की हैं। जिसके लिए मैने कोई कामना नही की। आज मेरी बहुत इच्छा है कि तुम मुझे किसी संपूर्ण गुरू से मिलवा दों। गुरू जी हर रोज ही इस तरह प्रार्थना करते थें और उन्हे तो रात को भी नींद नही आती थी। एक दिन सुबह, .उन्हें कुछ आवाज सुनाई दी, जो उनके पास घर से आ रही थी। वहां बीबी अमरो जी आसा दी वार का पाठ करते हुए बाणी पढ़ रहे थें। गुरू जी बाणी से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हे बीबी अमरो जी से पूछा कि तुम यह क्या पढ रहे हो इस पर उन्होने कहा कि यह मैं गुरू नानक देव जी की बाणी पढ़ रही हूं। इस पर उन्होने कहा कि क्या तुम मुझे गुरू नानक देव जी से मिलवा सकती हों। उन्होने कहा कि गुरू जी अब शरीर छोड़ गए है लेकिन उनकी ज्योति मेरे पिता गुरू अंगद देव जी के पास हैं। अब वही गुरू हैं। अगर आप उनसे मिलना चाहते हो तो उनसे मिल सकते हैं। 

गुरु अंगद देव जी से मुलाकात

 फिर गुरू अमरदास जी  गुरू अंगद देव जी के पास चले गए। और वहां पर उस समय लंगर हो रहा था तो वह भी बैठ गए। और उस समय लंगर मे मास भी था। लेकिन गुरू अमरदास जी तो वैष्णों थे तो उन्होने अरदास की अगर गुरू अंगद देव जी अंतरयामी है तो वह अपने आप ही यह मास खाने से रोक लें। गुरू अंगद देव जी ने उनकी थाली में मास डलवाने से मना कर दिया और कहा कि इन्हें यह शाकाहारी खाना ही दो। उसके बाद तो उनका गुरू जी पर विश्वास बन गया। और अपना सारा जीवन ही गुरू जी की सेवा में लगाने की प्रण कर लिया। वह हर रोज खडुर साहिब जहंा पर गुरू अंगद देव जी रहते थे वहां से कई कोस दुर ब्यास नदी से गुरू जी के स्नाान के लिए जल लेकर आते थें और यह सेवा उन्होने 12 साल की। जिस उम्र मे आपने गुरूघर में सेवा की उस समय मे हर कोई अपने परिवार के आश्रय पर जीना शुरू कर देता हैं। लेकिन आपने लोगों की अलोचना को ध्यान न देते हुए निरंतर रूप से गुरू अंगद देव जी को ईश्वर मानकर सेवा की। 

गुरुयाई

जिससे प्रसन्न होकर ही गुरू अंगद देव जी ने आपकों अपने बाद गुरू बनाया। उस समय आप 73 साल के थें। आपने अपने जीवन में कई ऐसे कार्य किए जिसने गुरूघर को एक नई ही दिशा दी। आपने एक नई प्रथा आरंभ की कि जिसने भी हमारे दर्शन के लिए आना है वह सबसे पहले लंगर छकेगा। उसके बाद ही आएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि ।उस समय अमीर, गरीब आदि में काफी अलग व्यवहार किया जाता था। इसके साथ ही आपने सती प्रथा, व घुंघट का भी विरोध किया। गुरू अंगद देव जी की आज्ञा पर आपने ब्यास नदी के पास गोइदवाल साहिब नाम से एक नगर की भी स्थापना की। और आपने सिखी के प्रसार, व लोगो को सही मार्ग .पर ले जाने के  मजियों की भी स्थापना भी की। इसके अतिरिक्त भी आपने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण कार्य किए।
नितनेम मे पढ़ी जाने वाली अतिंम बाणी आनंद साहिब भी आपकी ही रचना हैं। अपने अतिंम समय मे आप अपने जमाई भाई जेठा जी को गुरू बनाकर ज्योति जोत समा गए। आपने अपना शरीर गोइंदवाल साहिब मे सन् 1574 मे छोड़ दिया।

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