Guru Nanak Marriage with Mata Sulkani Devi in Batala

श्री सतगुरू प्रसादि
श्री गुरू नानक देव जी जो हमेशा ही संसार को ईश्वर से जोड़ने व हमेशा ही ईश्वर के ध्यान में लगे रहते थें जिससे उनके ​पिता जी, माता जी व उनके सभी संबंधी काफी दुखी थें। तब उनके पिता जी ने ​सोचा कि यदि नानक का विवाह करवा दिया जाए तो वह शायद संसार के कार्य में रूचि लेना शुरू कर दें। जब उसके घर में प​त्नी आएगी तो वह अपना ध्यान गृहस्थी जीवन की तरफ लग जाएगा। इसी लिए उनके पिता जी ने उनकी बहन बीबी नानकी जी को कहा कि वह अपने भाई के लिए कोई अच्छी—सी लड़की देखे और उसका विवाह नानक से कर ​दें।
तब उनकी बहन नानकी जी ने ही उनके लिए बीबी सुलखनी का चुनाव किया था और उनकी विवाह की अधिकतर तैयारियां भी उनके द्वारा ही हुई थी।
माता सुलखनी जी जिनका जन्म पंजाब के गुरदासपुर जिले में पिता मुल चंद जी व माता चंदो रानी जी के घर हुआ।

गुरु नानक का विवाह.बहुत सारे लेखकों ने गुरू जी के विवाह के कई दिलचस्प प्रसंख लिखे हैं। भाई संतोख सिंह जी लिखते है जब गुरू जी की बारात आती हैं तो उस समय उनके ससुराल में बारात को देखने का उत्साह होता है कि वह अपने सभी श्रृंगार भी गलत कर देते हैं। जो गहने कान में पहनने थे वह अपने नाक में पहन लेते हैं और जो नाक मे पहनने थे वह कान में। वहां पर ससुरालालियों ने जो लाल रंग गाल पर लगाना था उन्होने बारात को देखने की जल्दी में उसे तो अपनी आंखो पर रखा था ​और आंखों पर लगाए जाने वालें काजल को गालों पर लगा दिया।
जब गुरू जी बारात से उतरे तो माता सुलखनी जी की सहेलियों ने उनसे मजाक करने के लिए उन्हें एक ऐसी जगह पर बिठा दिया जहां पर उनके साथ जो दीवार कंध थी वह काफी पुरानी, और कमजोर थी जो कभी भी टूट सकती थी। लेकिन उनमेंं से ही एक माता ने गुरू जी को कहा कि आप यहां मत बैठिए यह जो दीवार है काफी पुरानी हैं और कमजोर भी। यह कभी भी गिर सकती हैं। परंतु जगत को तराने वाले गुरू नानक देव जी ने शांत स्वभाव से कहा कि माता जी चिंता मत करों यह दीवार तो कभी नहीं गिरेगी। बल्कि सदियों तक ऐसे ही खड़ी रहेगी। और उसके बाद आज तक वह दीवार उसी स्थान पर उसी तरह खड़ी हैं। वहां काफी वातावरण दिक्कते आई लेकिन अभी भी वह वैसे ही हैं। उक्त स्थान पर अब गुरूद्वारा कंध साहिब है जहां पर हर साल गुरू नानक देव जी का विवाह उत्सव काफी धूम—धाम से बनाया जाता हैं। और इस बार भी काफी धुमधाम से बना जा रहा हैं।

जब छठे पादशाह साहिब मिरी-पीरी के मालिक गुरु हरगोबिंद, अपने बेटे बाबा गुरदित्त से शादी करने आए, तो उन्होंने गुरु नानक के ससुर के घर भी गए उस जगह भी जहां गुरु साहिब का विवाह हुआ था। उस समय से इस पवित्र स्थान पर आने वाले भक्तों की संख्या में वृद्धि हुई। बाद में महाराजा जस्सा सिंह रामगढिया और सिख मिस्लों की रानी सदा कौर के शासनकाल में संगत के बीच गुरु साहिब के विवाह स्थल का महत्व बढ़ गया। महाराज शेर सिंह ने अपने कार्यकाल के दौरान उक्त स्थान जहां पर माता सुलखनी जी का घर था जिस स्थान पर गुरू नानक देव जी का विवाह हुआ था वहां पर एक सुंदर गुरुद्वारा श्री डेहरा साहिब बनवाया। और उसके बाद से संगतो ने यहां आना शुरू कर दिया। सिख मिस्लों के समय से, गुरुद्वारा श्री डेहरा साहिब में गुरु साहिब की शादी की सालगिरह मनाई गई और शादी के दिन विशेष कथा कीर्तन किया गया।
1917 में, संगत शादी का जश्न मनाने के लिए अमृतसर से ट्रेन से बटाला पहुंची। बारात का महंत केसरा सिंह और बटाला शहर की संगत ने गर्मजोशी से स्वागत किया। बारात को रेलवे स्टेशन के पास मोहल्ला दारा-उल-इस्लाम के बाहर शिवाला में उतारा गया और संगत का स्वागत किया गया। संगत के ठहरने की व्यवस्था रेलवे स्टेशन के पास की गई थी। बाद में महंत केसरा सिंह श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीर सिर पर लेकर संगत के साथ कीर्तन करते हुए गुरुद्वारा श्री डेहरा साहिब पहुंचे। रात भर यहां गुरबानी कीर्तन हुआ। अगली सुबह, महंत ने बीर साहिब को अपने सिर पर लिया और गुरु ग्रंथ साहिब के चारों ओर आगे बढ़े और लावा का पाठ किया। इसके बाद कई सालों तक यह परंपरा चली।
1952 के समय तक गुरुद्वारा श्री कांध साहिब नहीं था लेकिन संगत गुरु साहिब की उस कच्ची दीवार को नमन करते थे।
अमृतसर से नगर कीर्तन रेल के बजाय सड़क मार्ग से आने लगा और इसका नाम बदलकर शबद चौकी कर दिया गया। यह शबद चौकी हर साल शादी के अवसर पर बटाला आती है और संगत द्वारा इसका खूब स्वागत किया जाता है और शादी की खुशियों का जश्न मनाया जाता है। अब भी यह बात चौकी की शादी वाले दिन बटाला शहर में पहुंचती है।
विवाह का आधुनिक रूप लगभग दो दशक पहले शुरू हुआ था। साल 2000 के आसपास बटाला में सरदार बूट हाउस के मालिक बेदी हूर ने सुल्तानपुर लोधी से बटाला तक पैदल ही बारात के रूप में नगर कीर्तन लाना शुरू किया. इसके बाद, गुरुद्वारा श्री देहरा साहिब ने सुखमनी सेवा सोसाइटी के अध्यक्ष एडवोकेट राजिंदर सिंह पदम, ज्ञानी हरबंस सिंह और अन्य संगतों के सहयोग से 2005 में सुल्तानपुर लोधी से बटाला तक नगर कीर्तन के रूप में एक विशाल जुलूस का आयोजन किया। तब से लेकर अब तक यह नगर कीर्तन शादी से एक दिन पहले शाम को बटाला शहर पहुंचता है और गुरुद्वारा श्री सत करतारियां में विश्राम करता है। नगर कीर्तन शादी के दिन सुबह 7 बजे गुरुद्वारा श्री देहरा साहिब से शुरू होता है जो पूरे दिन बटाला के विभिन्न हिस्सों से होकर गुजरता है और शाम को गुरुद्वारा श्री कांध साहिब पहुँचता है और अंत में यह नगर कीर्तन गुरुद्वारा श्री देहरा साहिब में समाप्त होता है। जुलूस के रूप में नगर कीर्तन गुरुद्वारा श्री देहरा साहिब पहुंचने पर संगत द्वारा बड़े उत्साह के साथ स्वागत किया जाता है। इसके बाद शबद कीर्तन और लावा का पाठ होता है।
बटाला शहर में 'बाबा की शादी' के प्रति उत्साह और उत्साह हर साल बढ़ रहा है और वर्तमान में यह सबसे बड़े नगर कीर्तन के रूप में भी उभरा है। विवाह के अवसर पर देश-विदेश के संगत गुरुद्वारा श्री देहरा साहिब और बटाला शहर के गुरुद्वारा श्री कांध साहिब में माथा टेकते हैं और गुरु की असिस प्राप्त करते हैं।

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