Shri Guru Arjan Dev Ji and his sahidi
Shri Guru Arjan Dev Ji |
जिन्होंने सच्ची गुरबाणी की रचना कर व ऊँची कुर्बानी से सुनहरे, अविस्मरीणय व अदभुत इतिहास का सृजन किया। श्री गुरू अर्जुन देव जी द्वारा संपादित श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी जिसे 'गुरबाणी जग महि चानण' व 'सर्व सांझी गुरबाणी' कहा जाता है। इस अमोलक ग्रन्थ से प्रत्येक जाति, वर्ग व सम्प्रदाय प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। इसके द्वारा हिन्दु को प्रभु के दर्शन होते हैं, मुसलमान को खुदा व सिख को अकाल पुरख के। इस महान ग्रन्थ में हरि 8344 बार, प्रभु 1371 बार, ठाकुर 216 बार, राम 2533 बार, गोपाल 491 बार, नारायण 85 बार, अल्लाह 49 बार, पारब्रह्म 324 बार, एवं करतार 220 बार आया है।
गुरु ग्रन्थ साहिब जी में 31 रागों में बाणी दर्ज है। अनेक प्रदेशों की भाषाओं का प्रयोग किया गया है। 6 गुरुओं श्री गुरू नानक देव जी से लेकर 5वें गुरू श्री गुरू अर्जुन देव जी व नौवें गुरु श्री गुरू तेग बहादुर जी की बाणी अंकित है, 15 जातियों के भक्त, 4 संत, 11 भट्टों की वाणी दर्ज है। सुखमनी साहिब गुरू जी द्वारा रचित बाणी है, जिसे पढ़ने, सुनने, चिंतन करने से सब दुःख तकलीफों से छुटकारा मिलता है।
संक्षिप्त में कहा जाए तो श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में दर्ज, महापुरुषों की पवित्र वाणी से संपूर्ण मानव जाति जीवन जीने की कला, भक्ति−शक्ति, सेवा, समर्पण, परोपकार इत्यादि जैसे विलक्षण गुणों का अमृत प्राप्त करती है। जब गुरू जी छोटे थें तब एक बार वह गुरू अमरदास जी के मज्जें पर चड़ने की कोशिश कर रहे थें लेकिन गुरू अमरदास जी ने कहा कि अभी तुम्हारी इस पर बैठने की बारी नही आई हैं। अभी तो तुम्हारे पिता जी ने इस पर बैठना है उसके बाद तुम बैठोगें।
आप जी को बचपन से ही ईश्वर भक्ति के प्रति विशेष लगाव था। आपकी ईश्वर के प्रति यह आस्था देखकर आपके माता−पिता अत्यन्त हर्षित होते। आप शरीर के बलिष्ठ, लंबे एवं ललाट पर तेजस्व और नयनों में एक विशेष प्रकार के ज्योति पुंज को धारण किए थे। आपके मुखारविंद पर एक मधुर मुस्कान सदैव बिराजमान रहती। आप मधुर भाषी व उच्च व्यक्तित्व के स्वामी थे। आप सदैव स्वार्थ से दूर केवल त्याग की भावना से ओतप्रोत रहते। विन्रमता आपका सबसे बड़ा गुण था। गुरू दरबार के सेवा कार्यों में आपको बहुत आनंद मिलता। इसीलिए पिता श्री गुरू रामदास जी का अपने आज्ञाकारी पुत्र के प्रति विशेष लगाव था। इस कारण पृथी चंद जो कि र्ईष्यालु व अहंकारी स्वभाव का था।
कुछ समय बाद बड़े होने पर आपकों पिता गुरू रामदास जी द्वारा लाहौर भेजा गया। और आपकों हुक्म दिया गया कि जब तक हम न तुम्हें बुलाए तब तक वापिस मत आना। गुरू जी लाहौर गए और वही पर कुछ समय के लिए रहें। लेकन काफी समय तक कोई भी पिता गुरू द्वारा वापिसी का सदेंश न मिलने के कारण उन्होनें बाणी रची और उसे गुरू रामदास जी के पास भेज दी। लेकिन अर्जुन देव जी के बड़े भाई प्रिथी चंद ने वह बाणी को गुरू जी तक पहुंचने ही नही दी और उसे अपने पास ही रख ली।
कुछ समय तक जब गुरू अर्जुन देव जी को उनकी चिट्ठी का जवाब नही आया तो उन्होेने एक और चिट्ठी लिखी लेकिन वह भी प्रिंथी चंद को मिल गई और उसने वह भी गुरू रामदास जी तक नही जाने दी।
गुरू अर्जुन देव जी ने एक और बार बाणी लिखी और वह गुरू रामदास जी तक पहुंच गई जिसे पढ़कर गुरू जी काफी खुश हुए लेकिन उसपर लिखा था कि चिट्ठी नंबर—3 लिखा था जिसका अर्थ था कि इससे पहले दो ओर चिट्ठी है तब गुरू जी को पता चल गया कि किसी ने इससे पहले की चिट्ठी अपने पास रख ली हैं। उसके बाद गुरू रामदास जी ने आपकों अपनें पास बुलाया।
गुरूदेव रामदास जी ने सहज भाव सदेंशवाहक से पूछा कि इस पत्र पर तो 3 अंक लिखा हुआ है। क्या इससे पहले भी अर्जुन ने हमारे लिए पत्र भेजे थे? इस पर संदेशवाहक ने बताया कि वो पहले 2 पत्र पृथी चंद जी को देकर गया था। और उन्होंने कहा था कि गुरूदेव पिता कह रहे हैं कि जब अर्जुन देव की यहाँ आवश्यक्ता होगी हम बुला लेंगे। तभी गुरूदेव ने पृथी चंद को दरबार में बुलवाया। पृथी चंद संदेशवाहक को देखकर सब समझ गया। परंतु ऊपर से कहने लगा कि पिता जी मेरे लिए क्या संदेश है? गुरूदेव ने पूछा कि आपने अर्जुन के भेजे पत्र, मुझ तक क्यों नहीं पहुँचाए? तो वह तरह−तरह के बहाने बनाने लगा। वास्तव में गुरू रामदास जी गुरू गद्दी देने से पहले अर्जुन देव जी की परीक्षा ले रहे थे जिसमें वे उतीर्ण हुए और गुरूदेव ने उनका गुरूगद्दी के लिए बाबा बुढ्ढा जी से तिलक करवाया व समस्त संगत को आदेश दिया कि अब गुरू अर्जुन ही उनके गुरू हैं। इस प्रकार देश दुनिया को महान तपस्वी, धैर्यवान, जगत तारक संत सद्गुरू के रूप में श्री गुरू अर्जुन देव जी की प्राप्ति हुई। जिन्होंने हमें जीवन जीने की विशिष्ट कला प्रदान की जिससे हम अपना लोग परलोक संवार सके।आप जी को 18 साल की उम्र में, सन् 1581 को गुरगद्दी की प्राप्ति हुई।
wahegur
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