Dussara Mahatam


ੴ श्री सतगुरू प्रसादि 
गुरू गोंबिद सिंह जी ने खालसा पंथ बनाया तो उन्होने बहुत सारे पुराने त्योहारों का रूप बदलकर इसमें शामिल किया। भारत में पहले समय में लोग होली मनाते थें तो गुरू जी ने कहा कि हमारे सिख एक—दुसरे पर रंग डालकर होली नहीं बनाएगें बल्कि होला मोहल्ला बनाएगे। इसी तरह गुरू जी ने अन्य कई त्योहारों का रूप बदल दिया। दशहरा भी भारत में कई तरह से बनाया जाता हैं वैश्णों लोग, अधिकतर लोग सोचते है कि वैष्णों वह होता है जो मास, अंडा नहीं खाते हैं बल्कि वैष्णों वह होता है जो विष्णु का मानता हैं। दशहरें से पहले 9 दिन जिसमें नवरात्रि आती है उन दिनों वह हर रोज भगवान रामचंद्र जी का जीवन नाटकरूप में प्रस्तुत करते है जिससे रामलीला कहते हैं। इसमें कोई राम बन जाता है, कोई लक्ष्मण तो कोई मेघनाद इसी तरह होता हैं। और जो दुसरें लोग होता है जो देवी की अर्चना करते है वह नौ दिन तक रोज रात को जागरण करते हैं। पर गुरू जी ने इन दोनों तरह के लोगों द्वारा दशहरे के मनाए जाने का भाव एकत्र कर गुरू जी ने अपने सिखों को दशहरे मनाने का हुक्म दिया।
दशहरे से पहले दो महीने खुब बारिश होती है जिसे कारण शस्त्रों पर भी पानी लग जाने के कारण जंग लगने लग जाता हैं। तो गुरू जी ने सिखों को कहा कि वह अपने सारे शस्त्र निकालें और उन्हें नव​रात्रि के समय साफ करें और उसके बाद दशहरे वालें दिन गुरू जी ने सारे शस्त्रों की आरती करने का हुक्म दिया। प्रसंग श्रीगुरू प्रताप सूरजग्रंथ में भी हैं। आज भी तख्त हजुर साहिब में शस्त्रों की आरती होती हैं। नवरात्रि वाले दिन लोग देवी की पूजा करते है गुरू जी ने कहा कि वह शस्त्र को साफ करें क्योंकि शस्त्र भी तो देवी का स्वरूप हैं।
गुरू गोंबिद सिंह जी ने जब मुसलमानों से शस्त्र बनवाए तो उन्होनें काफी अच्छे से नहीं बनाए। उसके बाद कुछ गुरू जी को मनाने वालें सिख जो ​शिल्पकार थें वह आनंदपुर साहिब में आकर रहने लग गए तो उन्होने गुरूघर के लिए शस्त्र बनाने शुरू कर दिए। उनमें से ही एक थें भाई राम सिंह जी। 
गुरू जी ने नवरात्रि वालें दिन उन्हें कहा कि वह शस्त्रों को साफ करें। जब वह शस्त्रो साफ करते थें तो पैरों से उन्हे पकड़ लेते थें। जब गुरू जी ने उन्हें पैरों से शस्त्रों को पकडते हुए देखा तो उन्होने कहा कि शस्त्रों को पैर नहीं लगाने इससे इनका अपमान होता है।
बिना पैरों से पकड़े तो शस्त्र साफ ही नहीं होते लेकिन गुरू जी का आदेश पाकर उन्होने शस्त्र रखकर बैठ गए। जब थोड़ी—देर बाद गुरू जी वापिस आए तो उन्होने जब उन्हें खाली देखा तो उन्होने कहा कि गुरू जी आपने ही तो हुक्म दिया कि शस्त्रो को पैर नहीं लगाने तो फिर बिना पैर से पकड़े तो वह साफ ही नहीं हो सकतें। तब गुरू जी ने कहा कि तुम्हारें लिए माफ है तुम सफाई के लिए शस्त्रों को पैरों से पकड़ सकते हों।
भाई संतोख सिंह जी लिखते है कि एक बार गुरू गोंबिद सिंह जी के पास एक चौधरी आया। जब वह आ रहा था तो उसने काफी बड़े—बड़े वस्त्र पहने हुए थें जब वह दरबार साहिब में आया। तो उसके कपड़ों के कारण धूल उड़ने लगी वहां पर एक सिख ने कहा कि भाई देख कर चलों तुम्हारे कारण शस्त्रों पर मिट्ठी पड़ रही हैं।
यह सुनकर उस चौधरी को काफी बुरा लगा। उसने गुरू जी के पास जाकर कहा कि गुरू जी हमे आपके आगे तो शीश झुकाने में कोई संशय नहीं होता, लेकिन आपने लोहे के बने शस्त्रों को भी अपने समान क्यों सत्कार दिया हुआ हैं।
गुरू जी ने उनसे पूछा कि तुम हमें क्यों प्रणाम करते हों? हमारे आगे क्यों शीश झुकाते हों? उसने कहा कि गुरू जी आप हमारें गुरू है इसीलिए हम आपकें आगे शीश झुकाते हैं। गुरू जी ने कहा कि इसी तरह यह शस्त्र भी हमारे गुरू हैं। 
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