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Shahidi Saka(Chote Sahibzade) With Poem of Kavi Allah Yar khan Jogi

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जब सरसा नदी से गुरू गोबिंद सिंह जी का संपूर्ण परिवार बिडुड गया। तो माता जी व छोटे साहिबजादें उनके साथ चले गए। बडे साहिबजादें व गुरू जी चमकौर की तरफ हो गए। उस समय के साहिबजादों के भाव को कवि अल्लाह यार खान जोगी ने काफी अच्छा लिखा दादी से बोले अपने सिपाही किधर गए । दरिया पि हम को छोड़ के राही किधर गए । तड़पा के हाय सूरत-ए-माही किधर गए । उन्होने अपनी दादी से कहा कि अपने सिख कहां गए। वह अपने सरसा नदी पर छोड कर कहां चले गए। हमे मछली की तरह तडफा के कहां चले गए। अब्बा के साथ जिस घड़ी जुझार आएंगे । करके गिला हर एक से हम रूठ जाएंगे । माता कभी, पिता कभी भाई मनाएंगे । हमे गले लगा के कहेंगे वुह बार बार । मान जायो लेकिन हम नहीं मानेंगे ज़िनहार । (ज़िनहार=बिल्कुल) पिता जी के साथ जब बड़े भाई जुझार आएगें हम उनसे रूठ जाएगे कि वह हम छोड कर क्यों चले गए। हमे एक—एक करके सभी मनाएगे लेकिन हम किसी से भी नहीं मानेगे। इकरार लेंगे सब से भुलाना ना फिर कभी । बार-ए-दिगर बिछड़ के सताना ना फिर कभी । हम को अकेले छोड़ के जाना ना फिर कभी ।  सिरसा नदी के किनारे युद्ध के दृश्य से दूर चलते हुए, वे गंगू ब्राह्मण नामक अपने पुराने

बाबा गुरबख्श सिंह जी

बाबा गुरबख्श सिंह जी ने 1764 में अमृतसर में श्री दरबार साहिब की रक्षा करते हुए एक अद्भुत शहीदी दी थी। बाबा जी की शहादत हम सभी के लिए एक प्रेरणा है और दिखाती है कि कैसे एक गुरसिख युद्ध के मैदान में लड़ता है। बाबा जी के वीर बलिदान ने उनके बाद कई शहीदों को प्रेरित किया। बचपन-बाबा जी अमृतसर के सीरी के पास लील गांव के रहने वाले थे। उनके पिता भाई दसौंध सिंह जी और माता माता लछमी कौर जी थीं। बाबा जी के माता-पिता ने सतगुरु गोबिंद सिंह जी की सेवा की और बाबा जी ने 11 वर्ष की आयु में भाई मणि सिंह जी की प्रेरणा से अमृत प्राप्त किया। उन्होंने बाबा दीप सिंह जी और भाई मणि सिंह जी के साथ समय बिताया और एक बहुत अच्छे विद्वान और योद्धा बन गए। बाबा गुरबख्श सिंह हमेशा नीले रंग के बाना पहने रहते थे और बहुत मजबूत रहत रखते थे। वह अमृत-वेला  जागते थे और स्रान करते थे। फिर, गुरबानी का पाठ करते हुए, बाबा जी दुमाला बाँधते। बाबा जी सरब लोह से प्यार करते थे और अपने शरीर और दस्तार को लोहे के शस्त्रों व कवच से सजाते थे। हर अमृतवेला बाबा जी श्रीअकाल तख्त साहिब के दीवान में बैठते थे। जब श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी ने

साहिबजादा बाबा जोरावर सिंह

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साहिबजादा बाबा जोरावर सिंह सिख इतिहास में एक चमकते सितारे की तरह हैं। उनका जन्म 15 मगहर (30 नवंबर 1696) को श्री आनंदपुर साहिब, दशम पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी और माता जीतो जी के घर में हुआ था। इतिहास के अनुसार, जब गुरु के दो छोटे बेटे, साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह, अपनी दादी माता गुजरी जी के साथ, सिरसा के किनारे चलते हुए, उसे पार करने का कोई प्रयास किए बिना, भटक गए। सिरसा नदी के किनारे युद्ध के दृश्य से दूर चलते हुए, वे गंगू ब्राह्मण नामक अपने पुराने नौकर से मिले, जिन्होंने लगभग 20 वर्षों तक उनके घर में काम किया था। उसके अनुरोध पर, माता गुजरी, उनके दो पोते के साथ, गंगू के साथ उनके गांव जाने और कुछ समय के लिए उनके स्थान पर रहने के लिए सहमत हुए। इतिहासकारों के अनुसार जब उसने माता गुजरी जी के पास बड़ी मात्रा में नकदी और अन्य कीमती सामान देखा तो वह बेईमान हो गया। उसी समय, उन्हें पुरस्कार और प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए गुरु जी के परिवार को सरहिंद प्रांत में ले जाने का लालच था। गंगू द्वारा प्रदान की गई इस महत्वपूर्ण सूचना से पुलिस अधिकारी अत्यंत प्रसन्न हुए। माता जी को उनक

Bandi Chod Diwas! || Diwali|| Shri Guru Hargobind Sahib Ji

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दिपावली एक ऐसा त्योहार जिसे समाज के हर वर्ग किसी-न किसी रूप से हर साल बड़ी धुम-धाम से बनाते हैं। इसी दिन श्री गुरू हरगोबिंद साहिब जी ग्वालियर के किल से 52 कैदियों को  जो कई सालों से कैद मेंं थें, जिनके बारे में यह विचार थी कि उस जेल से इन राजाओं को जिंदा लाने की बात तो दुर की है उनकों दफना भी वही दिया जाता था, ऐसे राजाओं को जिनको जहांगीर ने कैद किया हुआ था, उनकों श्री गुरू हरगोबिंद साहिब जी मुक्त करवाकर दिपावली वालें दिन अर्थात कार्तिक मास की अमावस्या को हरमदिंर साहिब पहुंचें थे तो वहां पर संगतों ने उनका घी के दीए जलाकर स्वागत किया। तब से यह त्योहार का नाम बंदी छोड दिवस भी पड गया। इसी को लेकर एक कहावत भी प्रसिद्धि है कि दाल-रोटी घर की, दिवाली अमिृतसर की,।। विस्तृत इतिहास चंदू की चाल गुरू हरगोबिंद साहिब जी से, तुर्क बादशाह जहांगीर का दिवान चंदू जो काफी नफरत करता था, क्योंकि उनके पिता जी गुरू अर्जुन देव जी ने उसकी लड़की का रिश्ता गुरू हरगोबिंद साहिब जी से करवाना स्वीकार नहीं किया। इसी कारण से वह उनसे मन ही मन में काफी ईर्ष्या की आग में जलता रहता था एक दिन उसने एक ज्योतिष को काफी धन देकर कह

खालसे की माता साहिब देवा जी

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माता साहिब देवा जी   (  1 नवंबर  1681  -  1708  ), जिसे आमतौर पर माता साहिब कौर के नाम से जाना जाता है, को "  खालसा  की माँ" के रूप में जाना जाता है  ।  उन्होंने पहले  अमृत  को उस मिठास  से भरकर गौरव अर्जित किया जो  इसकी उग्रता को संतुलित करती है।  'साहिब देवन' कहलाने वाली माता साहिब कौर  खालसा  की माता थीं  ।  माता साहिब कौर जी जीवन भर गुरु साहिब के साथ रहीं। माता साहिब देवन के पिता की इच्छा थी कि उनकी बेटी  गुरु गोबिंद सिंह  से शादी करे  , हालाँकि गुरु पहले से ही शादीशुदा थे, इसलिए उनके पिता ने माता साहिब देवन को गुरु के घर में सिख के रूप में रहने और गुरु और उनके परिवार की सेवा करने की अनुमति मांगी।   गुरु गोबिंद सिंह ने  गुरु का लाहौर में  माता साहिब देवन  से  शादी की  लेकिन गुरु के साथ कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाए।  परिणामस्वरूप, गुरु गोबिंद सिंह ने उन्हें "खालसा की माँ" बना दिया।  इतिहास में आज तक, अमृत लेने वाले सभी सिख माता साहिब कौर को अपनी (आध्यात्मिक) माता मानते हैं, और गुरु गोबिंद सिंह जी को अपना (आध्यात्मिक) पिता मानते हैं। माता साहिब कौर जी, जिन्

Baba Budda ji birth

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waheguru ੴ श्री सतगुरू प्रसादि बाबा बुढ्डा जी जिनका जन्म कॅतक 7 1553 को अमिृतसर शहर के ​गांव गोगेनगर जिसे अब कथुनगर कहा जाता है, में पिता सुखा​ सिंह रंधावा के घर हुआ। उनके माता—पिता जी काफी धार्मिक प्रवत्ति वाले थे जिसके कारण उन्हें बाबा जी जैसी धार्मिक स्ंतान का आगमन उनके घर में हुआ। बाद में वह एक भैंसों को चराने वाले बन गए। गुरू नानक देव जी से ​मुलाकात— एक बार गुरू नानक देव जी ने अपने सिखों को कहा कि यहां से कुछ दुरी पर एक बालक बकरियां चरा रहा हैं। उसे हमारे पास लेकर आओ। गुरू जी का आदेशपाकर वह उसे लेने चले गए। उस बालक ने आकर गुरू जी को प्रणाम किया। गुरू जी ने उससे पूछा कि तुम्हारा नाम क्या हैं। उसने उत्तर दिया कि गुरू जी मेरे माता—पिता ने मेरा नाम बूड़ा रखा हैं। गुरू जी ने उससे कुछ सवाल किये और उसके बाद उसे वापिस भेज दिया।अगले दिन वहीं बालक सुबह अमिृतवेले 3—4 बजे गुरू जी के पास आया। उसने गुरू जी को प्रणाम किया और कहा कि गुरू जी आज मैं आपके लिए मखन्न लेकर आया हूं। गुरू जी ने उससे पूछा कि क्या तुम यह मखन्न चुरा कर तो नहीं लाए, कि कहीं तुम्हारे माता—पिता तुम्हे बाद में हमारे कारण डांटे।

Balmiki Birthday

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waheguru त्रेता के युग में और हिंदू देवता, रामचंदर के समय, एक ऋषि का जन्म हुआ था। उस समय मानव प्रजाति का बहुत बड़ा विकास नहीं हुआ था लेकिन यह स्तनधारियों और जानवरों का राज्य था। कई ऋषि जंगलों में रहते थे और जो लोग विभिन्न मंत्रों का प्रदर्शन करते थे। एक दिन कुछ महान वेद-मंत्र पाठक, ऋषि कशुप, अत्रि भारद्वाज, वशिष्ठ, गोतम और विश्व मितार एक धार्मिक भोज में शामिल होने गए। रास्ते में वे मध्य भारत के एक जनजाति के सदस्य से मिले, जिसके हाथ में कुल्हाड़ी थी। वह बहुत बड़ा था; उसकी बड़ी गोल आँखें, मोटे होंठ और बहुत ही गहरे रंग का था। उसका नाम वाल्मीकि था। वह जोर से गरजकर बोला, "रुको! आगे मत बढ़ो!" ऋषि रुक गया। वे लड़ने में सक्षम थे, क्योंकि वे महान योद्धा थे, लेकिन वे ऐसा नहीं करना चाहते थे। गौतम ने पूछा, "क्यों?" वालमिकी: "जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे यहीं छोड़ दो। अगर तुम ऐसा करने से इनकार करते हो, तो मैं तुम सभी को मार डालूँगा!" गोतम: "आपको क्या लगता है कि हमारे पास क्या है? हमारे पास एक भीख का कटोरा, एक हिरण की खाल और एक लंगोटी है ... इन चीजों का कोई मूल्य नहीं ह